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Wednesday, 25 September 2013

रुसवाइयां

क्यों चाहकर भी तेरी याद न भुला पाऊं।
दिल के जख्मों को ठहाकों में न छुपा पाऊं।
आंसू बन के तेरी यादें बरसती जाती हैं,
तेरी जैसी संगदिल क्यों न बन पाऊं ।
अपना जी भर के बिजलियां तूं गिरा ले मुझ पे,
इससे पहले कि मैं लंबे सफर निकल जाऊं।
मेरी सांसों ने भी तो मुझसे बेवफाई की,
तेरी चाहत की तरह कब पता बिखर जाऊं।
अभी सोचा था कि सूरत तेरी न देखूंगी,
डर क्यों लगता है देखे बिना न मर जाऊं।
रेत के महलों में पलते ये सपने मेरे क्यों,
 एक अदनी सी लहर आये और मैं बह जाऊं।

5 comments:

  1. tum sath na hoke bhi kyu sath hone ka eshas dete ho

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  2. nice..............

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  3. बहुत ही बढ़िया

    सादर

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  4. जीवन भी तो समग्र तभी बनता हैं जब अनुभूतियाँ समग्र हो जाती हैं। सुन्दर!

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