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Wednesday 23 July 2014

जब हम सब दीवाने थे



वो बचपन का जमाना था
जो दुनिया से बेगाना था
जहां गुड़िया की शादी थी
जहां गुड्डे का गाना था

कभी अंताक्षरी के दिन
कभी चौपाल सजती  थी
गुलाबी दिन हुआ करते
गुलाबी रात लगती थी

जेबों में कुछ आने थे
मगर मेले सुहाने थे
वो बाइस्कोप अच्छे थे 
डंडा गिल्ली पे ताने थे

चवन्नी की बरफ मिलती
अठन्नी की मिठाई थी
वो खुशियों से भरे दिन थे
भले ही कम कमाई थी

ऊदल की वो गाथा थी
जो दादी तब सुनाती थीं
आल्हा के पराक्रम के
नानी गीत गाती थीं

एक टांग के सब खेल
महंगे खेलों से अच्छे थे
इस आलीशान यौवन से
वो बेफिकर दिन ही अच्छे थे

वो दोहे, गीत वो सारे
जो हम बचपन में गाते थे
वो बातें, मस्तियां सारी
जहां गम भूल जाते थे

कोई वापस दिला दे आज
जो बचपन के जमाने थे
जहां हर पल में जादू था
जब हम सब दीवाने थे

Sunday 20 July 2014

मुनिया की मौत





इस गांव की हवेलियों के पीछे
एक चमारों की बस्ती है
रहती हैं जहां मुनिया, राजदेई और जुगुरी
अपनी चहक से मिटाती हैं गरीबी का दंश

ये उन चमारों की बेटियां है
जिनके मजबूत हाथ और बलिष्ठ शरीर
जमींदारों के खेत में हरियाली बोते हैं
लोगों का पेट भरते हैं अन्नदाता हैं हमारे

भयानक ठंड और चिलचिलाती धूप में
ये लोग खेतों में गीत गाते हैं
अनाज के सैकड़ो बोरे पैदा करने के बदले
कई रातें फांका करके सोने को विवश हैं

फिर भी अपने कर्त्तव्य की तपिश में
भूखे पेट भी ठाकुरों की बेगारी करते हैं
उनके लठैतों और लाडलों का
आंखों में खौफ दिन-रात रहता है

पशुओं की चरी और बरसीम सिर पर लिए
हाथ में टांगे कंडियों की टोकरी
एक दिन अपनी धुन में चली आती थी मुनिया
आंखों में बाजरे से हरे सपने लिए

क्या पता था उस बालिका को
कोई भेड़िया है घात में
उसकी कोमलता को शापित करने को
किसी जानवर ने झपट्टा मारा था

दर्द से बिलबिलाती मुनिया की 
तड़पती चीखें दबती गर्इं, थमती गर्इं
उसके विरोध से घायल भेड़िये के पंजों ने
मुनिया से जीने का हक भी छीन लिया

कल तक आंगन में फुदकती मुनिया
नि:शब्द हो गई, गहरी नींद सो गई
बाप की लाडली, मां की प्यारी बेटी
निर्मम दुनिया को अलविदा कह गई 

मुनिया की लाश लिए खड़ा था बाप उसका
ठाकुरों के बेटे बन्दूक लहराते पहुंच आए थे बस्ती में
बोले दफन करो चमारों अपनी औलाद को
इस ‘सभ्य’ गांव में पुलिस नहीं आने पाए

कलेजे के टुकड़े को गोद में लिए
बाप की आंखें इंतजार में सूखी जा रही थीं
थाने में रपट लिखाए दिन बीत गया लेकिन
कोई ‘कानून का रखवाला’ बस्ती में नहीं पहुंचा

पता चला कि ‘हवेली’ में आज 
शराब का दौर ‘साहब’ लोगों के लिए चल रहा है
इधर चमारों की पूरी बस्ती में
एक भी चूल्हा नहीं जल रहा है

तब उस मजबूर बाप ने अपनी मुनिया को
ढेलों के बीच एक गड्ढे में दफना दिया
और ठाकुरों के अय्याश लाडलों की
पंचायत में पेशी को चल दिया।





Saturday 19 July 2014

देखो कान्हा


सुन लो कान्हा मेरे कान्हा
मैं सखियों संग न जाऊंगी
मैं तुम संग दिन भर डोलूंगी
देखो कान्हा मेरे कान्हा

जब रास रचाई थी तुमने
मैं तन-मन भूल चुकी थी सच
तुम भोले-भाले चंचल से
मोहक चितवन, आमंत्रण से

मुरली मधुर बजा कान्हा
नित लीला नई दिखाते हो
मैं हुई प्रेम में दीवानी
तुम क्यों ना प्रीति लगाते हो

मैं वारी जाऊं तुम पर जो
तुम ज्यादा ही इतराते हो
मैं चोरी कर लूंगी तुमको
मटके में धर लूंगी तुमको

खोलूं मटका देखूं तुमको
इस मटके में रह जाओगे
मेरे कान्हा प्यारे कान्हा
देखो कान्हा, सुन लो कान्हा




Monday 14 July 2014

स्त्री तुम सचमुच अद्भुत हो



स्वाहा तुम्हीं स्वधा तुम हो
तुम कल्याणी सृष्टि की
बन मोहिनी जग को रचती 
स्त्री तुम सचमुच अद्भुत हो

एक बदन एक ही जीवन 
पर इतने रूपों में जीवित हो
सबसे पावन प्रेम तुम्हारा
स्त्री तुम सचमुच अद्भुत हो

अन्नपूर्णा इस जग ही 
तुम ही क्षुधा मिटाती हो
प्रेम भरा हर रूप तुम्हारा
स्त्री तुम सचमुच अद्भुत हो

पावन गंगा सी निर्मल हो
जग को सिंचित, पोषित करती
तुम न हो तो जग न होगा
स्त्री तुम सचमुच अद्भुत हो

Monday 7 July 2014

कौन है वह आखिर



दुनिया के भगवान कहे जाने वाले सूरज का 
इस तंग जगह से कोई वास्ता नहीं रहता
नहीं डालता कभी रोशनी इन अंधेरी गलियों पर
कि वो भी शुचिता की परंपरा को तोड़ नहीं सकता

होठों पर लाली, माथे पर बिंदी सजाये
कतार में खड़ी ये सुहागिनें नहीं 
पति नहीं उन्हें तो ‘किसी का भी’ इंतजार है
जो नीलामी की गली में उनकी भी बोली लगाएगा

हर दिन की कमाई या पूंजी कह लो
जिस्म की ताजगी पर ही जीवन का दारोमदार है
‘सभ्य’ लोगों की वासना को मिटाती हर रोज
हवस की ड्योढ़ी पर कुर्बान होना ही नियति है उनकी

श्मसान से भी ज्यादा लाशें
इन बदनाम गलियों में ‘जिंदा’ हैं
इनकी मौत या जिंदगी दोनों ही क्योंकि
कभी तरक्कीपसंद समाज में अहमियत नहीं रखती

सपने देखना ‘काम’ की पाकीजगी पर सवाल है 
आजादी का मतलब माग लेना मौत है
उसका हक है कि वह परोसी जाए
और अधिकार है उसके ‘गोश्त’ की अच्छी कीमत

मौत से खौफ नहीं उसे लेकिन
पल-पल मरकर जिंदा रहने से डरती है
बेशर्म होने का नाटक करते-करते
लजाने की खूबी चुक गई कब की

पत्नी, बहन, बेटी और मां 
इनका पर्याय वह जानती है लेकिन
वह इनमें से नहीं क्योंकि अनमोल हैं ये
और उसकी तो हर दिन कीमत चुका दी जाती है...