दुनिया के भगवान कहे जाने वाले सूरज का
इस तंग जगह से कोई वास्ता नहीं रहता
नहीं डालता कभी रोशनी इन अंधेरी गलियों पर
कि वो भी शुचिता की परंपरा को तोड़ नहीं सकता
होठों पर लाली, माथे पर बिंदी सजाये
कतार में खड़ी ये सुहागिनें नहीं
पति नहीं उन्हें तो ‘किसी का भी’ इंतजार है
जो नीलामी की गली में उनकी भी बोली लगाएगा
हर दिन की कमाई या पूंजी कह लो
जिस्म की ताजगी पर ही जीवन का दारोमदार है
‘सभ्य’ लोगों की वासना को मिटाती हर रोज
हवस की ड्योढ़ी पर कुर्बान होना ही नियति है उनकी
श्मसान से भी ज्यादा लाशें
इन बदनाम गलियों में ‘जिंदा’ हैं
इनकी मौत या जिंदगी दोनों ही क्योंकि
कभी तरक्कीपसंद समाज में अहमियत नहीं रखती
सपने देखना ‘काम’ की पाकीजगी पर सवाल है
आजादी का मतलब माग लेना मौत है
उसका हक है कि वह परोसी जाए
और अधिकार है उसके ‘गोश्त’ की अच्छी कीमत
मौत से खौफ नहीं उसे लेकिन
पल-पल मरकर जिंदा रहने से डरती है
बेशर्म होने का नाटक करते-करते
लजाने की खूबी चुक गई कब की
पत्नी, बहन, बेटी और मां
इनका पर्याय वह जानती है लेकिन
वह इनमें से नहीं क्योंकि अनमोल हैं ये
और उसकी तो हर दिन कीमत चुका दी जाती है...
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteपत्नी, बहन, बेटी और मां
इनका पर्याय वह जानती है लेकिन
वह इनमें से नहीं क्योंकि अनमोल हैं ये
और उसकी तो हर दिन कीमत चुका दी जाती है...
सत्य को बयां करते शब्द
धन्यवाद अनुषा
Deleteमन को झकझोर देती है आपकी यह रचना।
ReplyDeleteआपकी लेखनी यूं ही सामयिक और सामाजिक मुद्दों पर हमेशा चलती रहे।
सादर
जी जरूर यश जी. ऐसा ही प्रयास रहेगा हमेशा।
Deleteआभार आपका
कड़वी सच्चाई ।
ReplyDeleteजी जोशी जी। सच कहा आपने ये एक कड़वा सच है जिससे समाज मुह मोड़कर बैठा है। जबकि ये उसी समाज का हिस्सा है. फिर भी उनका अस्तित्व ही अपमानित है. जाने क्यों
Deleteमन को उद्वेलित करती रचना .... इतने दुःख के बाद सामजिक स्वीकार्यता भी नहीं इनको.... उफ्फ्फ
ReplyDeleteजी सच कहा आपने। समाज इनके साथ सचमुच बुरा करता है. जबकि समाज की गंदगी को सोख्ता है इनका होना, फिर भी ये ही गलत समझी जाती हैं
Deleteआभार आपकी प्रतिक्रिया के लिए
मन की भावनाओं का दरिया बह चला इस कविता के माध्यम से. सुंदर प्रस्तुति. बधाई....!!!
ReplyDeleteआभार आपका संजय जी।
Deleteपति बेटी माँ ... नारी को तो हर हाल में दबना ही पड़ता है ...
ReplyDeleteकमजोर है वो इस बात की दुहाई दे कर सभी दबाते हैं ...
जी दिगंबर जी। ये सच है की औरत के स्नेह और प्रेम और समर्पण को कमजोरी समझा गयाअऔर उसे दबाया गया। इस सोच से निकलना जरुरी है समाज को।
Deleteआभार आपका
अच्छा मन को झकझोर देने वाली पंक्तिया। धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार आपका प्रभात जी।
Deleteसादर
बहुत सार्थक सामयिक चिंतन से भरी रचना प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद् कविता जी। इस सच को लोगो से कहने का छोटा सा प्रयास किया। जिससे लोग समझे उनके दर्द को
Deleteबहुत आभार आपका।
ReplyDeleteसादर
कड़वी सच्चाई......
ReplyDeleteसादर आभार कौशल जी
Deleteयथार्थवाद के इस दौर में अच्छा क़दम है !
ReplyDeleteआभार आपका।
Deleteसादर
मानो यथार्थ को बाणीं मिल गई
ReplyDeleteसादर आभार अज़ीज़ जी।
Deleteभावनाओं को शब्द मिल गए और हकीकत बयां हो गई.
ReplyDeleteउद्वेलित करती रचना.
विनम्र आभार राजीव जी।
Deleteश्मसान से भी ज्यादा लाशें
ReplyDeleteइन बदनाम गलियों में ‘जिंदा’ हैं
इनकी मौत या जिंदगी दोनों ही क्योंकि
कभी तरक्कीपसंद समाज में अहमियत नहीं रखती
....अंतस को झकझोरती बहुत मर्मस्पर्शी रचना....लाज़वाब...
विनम्र आभार
Deleteबढ़िया सुंदर लेखन , स्मिता जी धन्यवाद !
ReplyDeleteInformation and solutions in Hindi ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
विनम्र आभार आशीष भाई
Deleteश्रेष्ठ लेखन
ReplyDeleteआभार
Deleteसादर
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteसभ्यता के विकास के साथ जुडी एक ऐसी वास्तविकता जिसे जानकर सिवाय दुःख के कुछ और नहीं मिलता.
ReplyDeleteसत्य कहा आपने निहार जी. उनका दर्द इतिहास की पर्टो में दबता ही चला गया है. और वो सिलसिला जारी है.
Deleteप्रतिक्रिया के लिए आभार
dil ko jhakjhorane waali rachna saty ko sunderta se shabdo me piroya hai aapne
ReplyDeleteआभार
Delete