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Monday 7 July 2014

कौन है वह आखिर



दुनिया के भगवान कहे जाने वाले सूरज का 
इस तंग जगह से कोई वास्ता नहीं रहता
नहीं डालता कभी रोशनी इन अंधेरी गलियों पर
कि वो भी शुचिता की परंपरा को तोड़ नहीं सकता

होठों पर लाली, माथे पर बिंदी सजाये
कतार में खड़ी ये सुहागिनें नहीं 
पति नहीं उन्हें तो ‘किसी का भी’ इंतजार है
जो नीलामी की गली में उनकी भी बोली लगाएगा

हर दिन की कमाई या पूंजी कह लो
जिस्म की ताजगी पर ही जीवन का दारोमदार है
‘सभ्य’ लोगों की वासना को मिटाती हर रोज
हवस की ड्योढ़ी पर कुर्बान होना ही नियति है उनकी

श्मसान से भी ज्यादा लाशें
इन बदनाम गलियों में ‘जिंदा’ हैं
इनकी मौत या जिंदगी दोनों ही क्योंकि
कभी तरक्कीपसंद समाज में अहमियत नहीं रखती

सपने देखना ‘काम’ की पाकीजगी पर सवाल है 
आजादी का मतलब माग लेना मौत है
उसका हक है कि वह परोसी जाए
और अधिकार है उसके ‘गोश्त’ की अच्छी कीमत

मौत से खौफ नहीं उसे लेकिन
पल-पल मरकर जिंदा रहने से डरती है
बेशर्म होने का नाटक करते-करते
लजाने की खूबी चुक गई कब की

पत्नी, बहन, बेटी और मां 
इनका पर्याय वह जानती है लेकिन
वह इनमें से नहीं क्योंकि अनमोल हैं ये
और उसकी तो हर दिन कीमत चुका दी जाती है...






37 comments:

  1. बेहतरीन रचना
    पत्नी, बहन, बेटी और मां
    इनका पर्याय वह जानती है लेकिन
    वह इनमें से नहीं क्योंकि अनमोल हैं ये
    और उसकी तो हर दिन कीमत चुका दी जाती है...
    सत्य को बयां करते शब्द

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    1. धन्यवाद अनुषा

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  2. मन को झकझोर देती है आपकी यह रचना।
    आपकी लेखनी यूं ही सामयिक और सामाजिक मुद्दों पर हमेशा चलती रहे।

    सादर

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    1. जी जरूर यश जी. ऐसा ही प्रयास रहेगा हमेशा।
      आभार आपका

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    1. जी जोशी जी। सच कहा आपने ये एक कड़वा सच है जिससे समाज मुह मोड़कर बैठा है। जबकि ये उसी समाज का हिस्सा है. फिर भी उनका अस्तित्व ही अपमानित है. जाने क्यों

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  4. मन को उद्वेलित करती रचना .... इतने दुःख के बाद सामजिक स्वीकार्यता भी नहीं इनको.... उफ्फ्फ

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    1. जी सच कहा आपने। समाज इनके साथ सचमुच बुरा करता है. जबकि समाज की गंदगी को सोख्ता है इनका होना, फिर भी ये ही गलत समझी जाती हैं
      आभार आपकी प्रतिक्रिया के लिए

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  5. मन की भावनाओं का दरिया बह चला इस कविता के माध्यम से. सुंदर प्रस्तुति. बधाई....!!!

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    1. आभार आपका संजय जी।

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  6. पति बेटी माँ ... नारी को तो हर हाल में दबना ही पड़ता है ...
    कमजोर है वो इस बात की दुहाई दे कर सभी दबाते हैं ...

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    1. जी दिगंबर जी। ये सच है की औरत के स्नेह और प्रेम और समर्पण को कमजोरी समझा गयाअऔर उसे दबाया गया। इस सोच से निकलना जरुरी है समाज को।
      आभार आपका

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  7. अच्छा मन को झकझोर देने वाली पंक्तिया। धन्यवाद!

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    1. आभार आपका प्रभात जी।
      सादर

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  8. बहुत सार्थक सामयिक चिंतन से भरी रचना प्रस्तुति

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    1. धन्यवाद् कविता जी। इस सच को लोगो से कहने का छोटा सा प्रयास किया। जिससे लोग समझे उनके दर्द को

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  9. बहुत आभार आपका।
    सादर

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  10. कड़वी सच्चाई......

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    1. सादर आभार कौशल जी

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  11. यथार्थवाद के इस दौर में अच्छा क़दम है !

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    1. आभार आपका।
      सादर

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  12. मानो यथार्थ को बाणीं मिल गई

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    1. सादर आभार अज़ीज़ जी।

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  13. भावनाओं को शब्द मिल गए और हकीकत बयां हो गई.
    उद्वेलित करती रचना.

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    1. विनम्र आभार राजीव जी।

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  14. श्मसान से भी ज्यादा लाशें
    इन बदनाम गलियों में ‘जिंदा’ हैं
    इनकी मौत या जिंदगी दोनों ही क्योंकि
    कभी तरक्कीपसंद समाज में अहमियत नहीं रखती
    ....अंतस को झकझोरती बहुत मर्मस्पर्शी रचना....लाज़वाब...

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    1. विनम्र आभार आशीष भाई

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  16. श्रेष्ठ लेखन

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  17. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........

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  18. सभ्यता के विकास के साथ जुडी एक ऐसी वास्तविकता जिसे जानकर सिवाय दुःख के कुछ और नहीं मिलता.

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    1. सत्य कहा आपने निहार जी. उनका दर्द इतिहास की पर्टो में दबता ही चला गया है. और वो सिलसिला जारी है.
      प्रतिक्रिया के लिए आभार

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  19. dil ko jhakjhorane waali rachna saty ko sunderta se shabdo me piroya hai aapne

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