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Thursday 26 September 2013

वेदना





मन में आह उपजाती,वेदना का कहर
अविरल उच्छवासों में
समेट कर छुपाती हूं।

अटकती सांसें
आत्मा को चीरकर,
आंसुओं के दामन में 
लुढ़क जाती हैं।

पीड़ा की कठोरता
 मुझमें  टूटकर तब,
भावनाओं को लिये 
आंखों में पिघल जाती है।

उलझनों की लहरों को
जीवन के आह्लादों पर,
ठोकरें मारने से 
कहां रोक पाती हूं। 

17 comments:

  1. भावपूर्ण रचना।

    सादर

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  2. धन्यवाद आपको। मेरी प्रस्तुति को नयी पुराणी हलचल पर जगह देने के लिए।
    सादर।

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  3. Replies
    1. धन्यवाद् निहार जी।

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  4. Beautiful and heart touching :)

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    1. धन्यवाद् व्यास जी।

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  5. उलझनों की लहरों को
    जीवन के आह्लादों पर,
    ठोकरें मारने से
    कहां रोक पाती हूं।
    ...वाह...बहुत प्रभावी रचना...

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    1. आपको बहुत बहुत धन्यवाद्।
      सादर।

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  6. bahut bahut dhnyawad pratibha ji.

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  7. बहुत ही उम्दा भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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    1. आपको सादर धन्यवाद्

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  8. एक बढ़कर एक सुन्दर रचनाये मन खुश हो गया जी
    कभी फुर्सत मिले तो हमारी देहलीज़ पर भी आये

    संजय भास्कर
    शब्दों की मुस्कराहट
    http://sanjaybhaskar.blogspot.in/

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    1. सादर आभार आपका।

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  9. सुन्दर भावानुभूति!

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