अचानक एक साथ विश्व के सारे शब्द शून्य हो गए हैं..
जहां ह्रदय की उम्मीदें गुणा होकर शून्य हुई जा रही हैं
सूरज की मद्धम होती किरणें अगली सुबह तक प्रतीक्षा करेंगी
स्मृतियों के धागे बिछोह की आग में जलकर ख़ाक होने को सज्ज हैं
क्यों हुई थी वो तत्परता, जिसने नदी के आवेग को भी मात दे दी
वैराग्य को पीछे छोड़कर भी फिर से आराधना को चुना ही क्यों?
क्या सचमुच धरती और आसमान नहीं मिलते
क्या उस दूर क्षितिज के पास भी नहीं?
क्या पुनर्जन्म तक का इंतज़ार करना होगा
क्या निष्ठुर नियति न्याय करेगी उर्वशी-पुरूरवा का?
ये सन्नाटे तुम्हारे पदचाप के दूर होने का प्रमाण देते हैं
शायद तुमने राह बदल दी...
पर मेरा वादा है... हम फिर मिलेंगे
सुन्दर
ReplyDeleteव्वादों पर ही जिंदगी कायम है ... मिलन जरूर होता है अगर चाह जीवित रहती है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....