दिन भर की थकान के बाद
सूरज जब ढलने लगता है
उसकी सुनहरी रश्मियों से टकराकर बनने वाली
तुम्हारी परछार्इं को कैद कर लेना चाहती हूं
छत की मुंडेर पर खड़ी रहकर अनवरत
उस परछार्इं को जाते हर दिन देखती हूं
जो तुम्हारे लौटने के साथ-साथ
मुझसे दूर होती चली जाती है
हर दिन तुम्हें छूकर आने वाली
इन किरणों को आंखों से स्पर्श करती हूं
जैसे तुम्हारे और मेरे दरमियान
स्रेह का अस्तित्व बस इन्हीं से है
मेरी पहुंच से दूर रहकर भी
तुम मुझे रोज छूकर गुजर जाते हो
और तुम्हारी रोशन छवि निहारकर
मेरा मन प्रकाश से भर जाता है
मेरे छज्जे से तुम्हारे छज्जे के कोने तक
ये दूरी जैसे जनम भर की हो
पर रोज तुम्हारे ओझल होने से पहले
मन की मखमली कैनवास पर
तुम्हारी तस्वीर उतार लेती हूं
ये फासले कब तक रहें कुछ पता नहीं लेकिन
तुम्हारे प्रेम के उजाले से मेरा अस्तित्व जगमगा उठा है
और देखो यह रोशनी हमारे मिलन की
मौन रहकर इस रात को सवेरा बना रही है।
too good smita..:)
ReplyDeleteधन्यवाद् अनुषा।
ReplyDeleteलाजवाब !
ReplyDeleteधन्यवाद यशवंत जी आपको।
ReplyDeleteअनुरक्ति को बहुत सुन्दरता के साथ पेश किया है.
ReplyDeleteआभार।
Deleteकल 15/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
आपका आभार यश जी
Deleteसादर।
जबरदस्त.....क्या बात है!!
ReplyDeleteधन्यवाद् संजय जी।
Deleteबहुत अच्छा लिखा है |
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपको सादर।
Deleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति स्मिता जी ..
ReplyDeleteनीरज जी धन्यवाद् आपको सादर
Deleteवाह बहुत खूब लिखा है आपने ।बधाई।
ReplyDeleteसादर आभार नवीन जी
Deleteबढ़िया अभिव्यक्ति ! बधाई
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आपको।
Deleteबहुत खूबसूरत कविता है
ReplyDeleteधन्यवाद शेफाली जी।
Deleteबहुत सुन्दर अनुभूतियाँ हैं आपकी। बहुत बधाईयां व सादर शुभकामनाएं!
ReplyDeleteआभार आपका मधुरेश जी
DeleteSunder paishkah dhero shabdo ke rash me nahayi hui hai aapki kavita....badhaai....
ReplyDeleteआभार आपका परी जी
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