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Tuesday 17 June 2014

सुंदरता और औरत



औरत का नाम जेहन में आते ही 
एक कोमल आकर्षक काया 
आंखों के सामने सजीव हो उठती है
जिसका भाग्य ही जैसे उसकी सुंदरता हो

कवियों ने उसे हिरनी सा बताया
तो चित्रकारों ने प्रकृति सा मनोरम
गीतों में वह झरने की कल-कल है
तो स्वर में कोयल से भी मीठी 

किसी का जीवन सार बनकर मन में बसाई गई
तो किसी की प्रेयसी बनकर प्रेम के उपमानों से सजाई गई
पर इनमें से कभी किसी रूप में क्या
उसकी सुंदरता से हटकर कुछ वंदनीय हो सका

वह कुरूप रहकर कब प्रेम की पात्र बनी
 उसके सुंदर अंतस को किसी ने यूं सराहा क्या
इस समाज में जब तक वह खूबसूरत है
शायद हर गजल, हर गीत की जरूरत है

स्त्री चित्रण उसके लावण्य के बिना अधूरा लगता है
क्या सफलता है यह औरत की, जिस पर वह इतराती रही
या उसे सौन्दर्य के पाश में बांध, प्रेम के आडंबर से घेर
साजो-सामान बनाने के पीछे की साजिश

विडम्बना ही है कि जीवन के हर रूप में शामिल होकर भी
वह मानव या प्रकृति तुल्य कम सराही, अपनाई गई
उसका तेज, उसकी ममता, उसका त्याग या प्रेम नहीं
उसकी मनोहरता ही उसके होने को साबित करती रही











40 comments:

  1. "उसका तेज, उसकी ममता, उसका त्याग या प्रेम नहीं
    उसकी मनोहरता ही उसके होने को साबित करती रही"


    पूरी तरह सहमत।

    स्त्रियों के प्रति पारंपरिक सोच को हमे त्यागना ही होगा तभी हम देश और संस्कृति के समग्र विकास के बारे मे सोच सकते हैं।

    सादर

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    1. बिल्कुल सही कहा आपने यश जी। औरत के सम्पूर्ण विकास और सम्मान के लिए समाज को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। सादर आभार

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  2. खुबसूरत अल्फाजों में पिरोये जज़्बात....सुंदर कविता के लिए आभार !!

    मेरे ब्लॉग पर आयीं आप और सुन्दर भावपूर्ण टिपण्णी भी की
    आपने,इसके लिए मैं दिल से आभारी हूँ आपका.

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    1. सादर आभार आपका संजय जी

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  3. अति सुंदर स्मिता जी ....बहुत ही सुंदर शब्दावली

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  4. विडम्बना ही है कि जीवन के हर रूप में शामिल होकर भी
    वह मानव या प्रकृति तुल्य कम सराही, अपनाई गई
    उसका तेज, उसकी ममता, उसका त्याग या प्रेम नहीं
    उसकी मनोहरता ही उसके होने को साबित करती रही

    ...एक कटु सत्य...आवश्यकता है समाज को अपनी सोच बदलने की...

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    1. सच कहा आपने समाज को बदलने की जरुरत है पर जाने कब तक लोग इसे स्वीकार करेंगे

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  5. बहुत खूब स्मिता
    बहुत अच्छा लिखा है

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  6. सादर आभार

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  7. स्त्री को अपना महत्त्व समझना होगा ... तभी समाज उसका महत्त्व समझेगा ...

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    1. बिल्कुल सही कहा आपने. सादर आभार

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  8. सादर आभार यश जी।

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  9. वह कुरूप रहकर कब प्रेम की पात्र बनी
    उसके सुंदर अंतस को किसी ने यूं सराहा क्या
    इस समाज में जब तक वह खूबसूरत है
    शायद हर गजल, हर गीत की जरूरत है
    smita ji bahut hi gahraai hai aapki abhivyakti me .very nice .

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    1. सादर आभार आपका। शालिनी जी।

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  10. कई शताब्दियों के बाद पिछली सदी की कविता में परिवर्तन जरूर देखा जा सकता है. हाँ मंचीय कविता इस जाल से कब मुक्ति पाएगी यह देखना है.

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    1. सही कहा आपने. सचमुच साहित्य ही समाज का दर्पण होता है और इसीलिए साहित्यिक रचनाये ऐसी होनी चाहिए जो समाज को सुन्दर दिशा दे सके और औरत को उसका वाज़िब हक़
      सादर आभार

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  11. बात तो सही है .. विचार पूर्ण बातें लिखी है आपने.. हालाँकि स्त्री के ममता एवं त्याग की भी चर्चा उसके लावण्य एवं सौन्दर्य के साथ बराबर से साहित्य में की जाती रही है . देखिये.. यद्यपि मेरी बातें नारीवादी विचारकों को गलत लगती है .. फिर भी मैं कहूँगा... स्त्री का स्त्री होना प्रकृति है. ईश्वर ने स्त्री को विशेष क्यों बनाया उसे पुरुषों की तरह बना सकता था , बस उसे बच्चे को जन्म देने में सक्षम बना देता .. लेकिन नहीं प्रकृति ने ऐसा नहीं किया .. उसे विशिष्ट बनाया. उसे रूप , लावण्य एवं सौन्दर्य से संवारा ,, ऐसा इसलिए किया पुरुष उसकी ओर आकर्षित हो सकें .. यह बात सिर्फ मनुष्यों में नहीं वरन धरती पर सभी जीवों में पायी जाती है .. कभी किसी छोटी बच्ची को देखिये .. एक साल या दो साल की उसकी तुलना उसी उम्र के किसी बच्चे से कीजिये तो आप पायेंगे कि जो बच्ची है वह सजने संवरने की चीजों, गुडिया आदि के प्रति अधिक आकर्षित होता है , जबकि बच्चा मोटर गाड़ी , हाथी , घोड़े आदि जैसे खिलौने की ओर आकर्षित होता है.. ऐसा क्यों होता है ..लड़कियों में जन्मजात स्त्रैण गुण पाए जाते हैं .. क्योंकि यह प्रकृति है . स्त्रियों में सौन्दर्य, उसकी लावण्यता , उसकी कमनीयता उसको प्राप्त ईश्वरीय वरदान है ... :)

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    1. saadar aabhar apka neeraj ji. aapke vichar bhi tarkik hain aur inhe sweekar bhi kiya jata raha hai.

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  12. कवियों ने उसे हिरनी सा बताया
    तो चित्रकारों ने प्रकृति सा मनोरम
    गीतों में वह झरने की कल-कल है
    तो स्वर में कोयल से भी मीठी
    ……… स्त्री-पुरुष का भेद आदिकाल से चला आया है और यह सब पुरुष की मानसिक उपज की देन है.। धीरे धीरे ही सही अब यह भेद कम होता जा रहा है पुरातन मान्यताएं खत्म होने की कगार पर हैं

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    1. जी कविता जी सच कहा आपने। ये बदलाव जितना जल्दी हो बेहतर होगा।
      आभार।

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  13. सच विडंबना ही है ....तभी तो लगता है कि बहुत कुछ बदल कर भी कुछ नहीं बदला .....

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    1. समाज में अभी भी जो मानसिकता भरी हुई है उसे ख़त्म करने में कुछ वक्त और लगेगा।
      आभार

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  14. सच विडंबना ही है ....तभी तो लगता है कि बहुत कुछ बदल कर भी कुछ नहीं बदला .....

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  15. सच स्मिता -यह एक बिडंबना ही है -अच्छा लिखती हो और विचारपूर्ण भी

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    1. जी विडम्बना ही कह सकते हैं या फिर समाज चाहता ही नही की जिसे वो भोग्या समझता रहा वो उससे सम्मान कैसे पा सकती है।
      आभार सादर

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  16. उसका तेज, उसकी ममता, उसका त्याग या प्रेम नहीं
    उसकी मनोहरता ही उसके होने को साबित करती रही.....कटु सत्य को बयान करती सुंदर कृति !

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    1. सादर आभार प्रीती जी।

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  17. बढ़िया भाव अभिव्यक्ति , मंगलकामनाएं आपको !!

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    1. धन्यवाद्। सादर।

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  18. वाकई विडम्बना है- न्याय की भी, धर्म की भी! लेकिन कुरुपता तो पारिप्रेक्षिक हैं, किन्ही की लिए कुछ सुन्दर, किन्ही के लिए कुछ और! कहते हैं सुंदरता देखनेवालों की आँखोँ में होती हैं! है न?

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    1. जी बिल्कुल. सादर आभार आपका

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  19. वाह क्या खूब लिखा है आपने | एक और बेहतरीन ब्लॉगर मित्र मिल गया

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  20. Bahut sunder lekh smita ....... Shubhkamnayein aapko gun hi likhte rahiye...

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