गांव की झोपड़ियों के बीच
एक कुएं का पानी हर मौसम में
सबकी प्यास बुझाता है
तृप्त चेहरे देख, विचित्र संतोष उसमें ‘जीवन’ भर देता है।
लगभग न दिखने वाले अस्तित्व में भी
अपनी सूखती धमनियों से
निचोड़ कर तमाम जलराशि
उस गांव की छोटी-छोटी बाल्टियों में भर देता है
कुएं की डाबरों में सिमटी जलराशि ने
जैसे कर लिया हो गठबंधन
धरती की अथाह जलराशि से
कि वो सूखकर भी खाली नहीं हुआ है
गांव के घरों की ढिबरी की रोशनी
नहींं पहुंचती उसके अंधेरे वर्तमान तक
लेकिन वह हर दिन सूखते हुए भी
सींच रहा है सैकड़ों जीवन
कोई अभिलाषा शेष नहीं है
उम्मीद कोई पैदा नहीं होनी है अब
उसे मालूम है अपना अंजाम पर उससे पहले
वह निभा रहा है कर्त्तव्य धरती पर ‘जीवन’ कहलाने का
बहुत उम्दा
ReplyDeletethank u so much anusha..i will try better
Deleteबहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना.......... शुभकामनायें ।
ReplyDeleteधन्यवाद्
Deleteसादर आभार आपका यशवंत जी।
ReplyDeleteसादर आभार
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteधन्यवाद अनुषा
Deleteमंत्रमुग्ध कर दिया आपकी रचनाओं ने। सुन्दर शैली और इतने ही सुन्दर शब्द चयन। और भावनाएं अविरल प्रवाह!
ReplyDeleteआस पास होने वाली घटनाये कुछ चित्रमं में उकेरती हैं तो उन्हें लिखने का प्रयास भर है ये सब रचनाये. सादर आभार आपका
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